गंगा| गंगा में मछलियाँ| पानी में ऑक्सीजन| सेंट्रल इनलैंड फिशरीज रिसर्च इंस्टिट्यूट(CIFRI)| जल की गुणवत्ता| पानी में प्रदूषण| मछली की संख्या में गिरावट| इलाहबाद|
गंगा में मछलियों की हालत बहुत खराब है. 1950 में प्रति किलोमीटर लगभग 1300 किलो मछली प्रतिदिन पकड़ी जाती थी. आज यह घट करके कुल 350 किलो रह गयी है जो कि पूर्व की लगभग चौथाई है. मछली के कम होने का अर्थ यह है की गंगा में पानी नहीं है अथवा उस पानी में ऑक्सीजन नहीं है जो की मछली को पोषित करती है, अथवा उस प्रदूषण ज्यादा है जो मछली के लिए हानिकारक है. इसलिए हम मछली की संख्या को जल की गुणवत्ता के रूप में देख सकते हैं. मचलियों की घटती संख्या के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं. CIFRI (सेंट्रल इनलैंड फिशरीज रिसर्च इंस्टिट्यूट) बैरकपुर कलकत्ता द्वारा किये गए अध्ययन में 50 के दशक से 2000 के दशक तक इलाहबाद में हर दशक में पकड़ी जाने वाली मछली की संख्या में गिरावट आयी है.
इलाहबाद में घटती मछली पकड़ने की मात्रा (CIFRI रिपोर्ट)
नीचे ग्राफ में इसी आंकड़े को हर वर्ष के अनुसार दिखाया गया है. आप देख सकते है कि लगातार मछली की उपलब्धता कम हुई है.
ग्राफ द्वारा दर्शायी गयी घटती मछली पकड़ने की मात्रा (CIFRI रिपोर्ट )
मछली पकड़ने के आंकड़े| मछली की उपलब्धता| मछुआरों की जीविका| सिंचाई बैराज| गंगा की मछलियाँ|
मछली की उपलब्धता के कम होने का सीधा प्रभाव यह है कि मछुआरों की जीविका पर आघात हुआ है. हमने बैराज बना कर गंगा के पानी को सिंचाई के लिए उपयोग किया और उस सिंचाई से अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया. कृषि का उत्पादन बढ़ा. लेकिन उस प्रक्रिया में हमने गंगा की मछलियों को मारा, जल की गुणवत्ता को नुकसान पहुँचाया. इस प्रकार जितना लाभ हमने कृषि में पाया उसका कुछ अंश या उससे अधिक नुकसान हमें मछलियों को मार कर हुआ.
जलविद्युत परियोजना| मछली का जीवन| अंडे देने का उपयुक्त स्थान| हिलसा मछली| महसीर मछली| फरक्का बैराज| भीमगौड़ा बैराज| पशुलोक बैराज|
मछली पर सिंचाई की बैराजों एवं जलविद्युत परियोजनाओं का दो प्रकार से प्रभाव पड़ता है. पहला यह कि बैराज के नीचे पानी कम हो जाता है. पानी कम होने से मछली का जीवन यापन करने का स्थान ही समाप्त हो जाता है और मछली मरती है. दूसरा कि हमारी श्रेष्ठ मछलियां अपने अंडे देने के स्थान को पलायन नहीं कर पाती हैं. जैसे हिलसा मछली बंगाल की खाड़ी में गंगा के मुख से बिहार तक अंडा देने के लिए आती है और उत्तराखंड की महसीर मछली हरिद्वार और रूडकी से ऊपर जा कर ऊपर के पहाड़ी इलाकों में अंडे देती है. लेकिन फरक्का बैराज (बंगाल), भीमगौड़ा बैराज (हरिद्वार) और पशुलोक बैराज (ऋषिकेश) ने इन मछलियों के पलायन का रास्ता रोक लिया है जिसके कारण इन मछलियों को अंडे देने के स्थान पर पहुंचना असम्भव हो गया है. इससे इनका जीवन चक्र टूट गया है जिससे आज यह मछलियां लुप्त प्राय होने को चली हैं.
सिंचाई के लिए पानी| मछुआरों का नुकसान| नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल| नुकसान की भरपाई| पर्याप्त मुआवजा| सुप्रीम कोर्ट| बैराजों से लाभ तथा हानि| बैराजों एवं बांधों को हटाना|
मछली पकड़ते मछुआरे ; फोटो शंकर एस.
हम मानते हैं कि सिंचाई से लाभ होता है लेकिन यह भी स्पष्ट है कि सिंचाई के लिए पानी निकालने से मछुआरों का नुकसान हुआ है. अतः हमने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में एक वाद डाला था जिसमे कहा था कि सिंचाई से होने वाला जो लाभ है उसमे से कुछ अंश को लेकर मछुआरों की भरपाई की जानी चाहिए. हम सिंचाई करने के विरुद्ध नहीं हैं. यदि आप सिंचाई करना चाहते हैं तो अवश्य करें. लेकिन सिंचाई से यदि मछुआरों का जीवन नष्ट हो रहा है उनको पर्याप्त मुआवजा भी मिलना चाहिए. दुर्भाग्य से ट्रिब्यूनल ने इस याचिका को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि नदियों पर जो बाँध या बैराज बने हुए हैं वो पुराने हैं इसलिए वाद इस समय नहीं सुना जा सकता. बहरहाल यह वाद इस समय सुप्रीम कोर्ट से सामने है.
मूल बात यह है कि देश और सरकार को चाहिए की इस बात का निष्पक्ष आंकलन करे कि सिंचाई और जलविद्युत परियोजनाओं कितना लाभ हो रहा है और कितनी हानि हो रही है और इस आंकड़े को जनता के सामने स्पष्ट प्रस्तुत करें. तब निर्णय लें कि आगे बाँध या बैराज बनाये जाने चाहिए अथवा वर्तमान में बने हुए बैराजों को हटाना चाहिए.