क्या जस्टिस दीपक मिश्रा नें गंगा को बर्बाद किया?

कहानी उत्तराखंड में 1985 में शुरू होती है. उस समय गंगा की मुख्य धारा अलकनंदा पर श्रीनगर के पास एक जलविद्युत परियोजना को पर्यावरण मंत्रालय नें स्वीकृति दी थी. लेकिन इस परियोजना का निर्माण वर्ष 2006  में शुरू हुआ. परियोजना पर निर्माण शुरू होने से पहले ही वर्ष 2004 में पर्यावरण मंत्रालय नें एक अध्यादेश (यहाँ देखें) जारी किया जिसमे कहा था कि वर्ष 2004 तक जिन परियोजनाओं का निर्माण प्लिन्थ तक न हुआ हो उन्हें नयी पर्यावरण स्वीकृति लेनी होगी. चूंकि श्रीनगर परियोजना का निर्माण 2006 में शुरू हुआ था इसलिए इस परियोजना को उक्त अध्यादेश के अनुसार नयी पर्यावरण स्वीकृति लेनी थी.

इस मुद्दे को उत्तराखंड के नैनीताल हाईकोर्ट में उठाया गया. चीफ जस्टिस बारिन घोष नें नवम्बर 2011 (निर्णय यहाँ देखें) में निर्णय दिया कि 2004 के अध्यादेश के मद्देनजर परियोजना की पर्यावरणीय स्वीकृति रद्द हो चुकी थी. उन्होंने पर्यावरण मंत्रालय को आदेश दिया कि नयी जन-सुनुवाई करके तय करे कि पुरानी पर्यावरण स्वीकृति को रद्द करना है, जारी रखना है, या फिर उसमे परिवर्तन करना है. बताते चलें कि पर्यावरण स्वीकृति लेने का एक प्रमुख अंग जन-सुनुवाई होता है. सरकार द्वारा स्थानीय जनता को सुना जाता है और उनकी आपत्तियों और विचारों को ध्यान में रख कर ही तय किया जाता है कि पर्यावरण स्वीकृति दी जाएगी या नहीं. अतः वर्ष 2004 के अध्यादेश के अनुसार परियोजना की पर्यावरण स्वीकृति पर निर्णय लेने की प्रक्रिया के प्रथम चरण में जनसुनुवाई की जानी थी. परियोजना के पर्यावरणीय प्रभावों का पुनः आंकलन करना था और नयी स्वीकृति देनी थी. लेकिन इस परियोजना को लागू करने वाली जीवीके कंपनी नें बिना नयी पर्यावरण स्वीकृति लिए परियोजना का निर्माण 2006 में शुरू कर दिया जैसा कि चित्र 1 में दिया गया है.

नैनीताल हाईकोर्ट के आदेश के विरुद्ध जीवीके कंपनी सुप्रीम कोर्ट पहुंची. जीवीके की अपील जस्टिस दीपक मिश्रा के साथ दो अन्य जजों द्वारा जनवरी 2012 में सुनी गयी. जस्टिस दीपक मिश्रा नें पहली सुनवाई को ही निर्णय दिया कि नयी पर्यावरणीय स्वीकृति जरुरी है या नहीं इसको बाद में तय किया जायेगा परन्तु फिलहाल परियोजना का निर्माण निर्बाध जारी रहेगा. इस प्रकार उन्होंने ऐसी परियोजना जिसका निर्माण पर्यावरण मंत्रालय के 2004 के अध्यादेश के विरुद्ध हो रहा था उसको जारी करा दिया.

जुलाई 2012 में एक और सम्बंधित मुद्दा उठाया गया. मई 2011 में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा परियोजना के काम को रोक दिया गया था चूँकि परियोजना द्वारा 1985 की पर्यावरण स्वीकृति की शर्तों का उलंघन किया जा रहा था (ऑर्डर यहाँ देखें). यह मामला जस्टिस के.एस.राधाकृष्णन और जस्टिस दीपक मिश्रा नें सुना. उन्हें बताया गया कि जीवीके कंपनी नें जनवरी 2012 में जब कार्य निर्बाध चलने का ऑर्डर दिया गया था उस समय GVK ने जून 2011 के पर्यावरण मंत्रालय किए आदेश को जानबूझ कर सुप्रीम कोर्ट से छुपाया था. इस प्रकार परियोजना के सम्बन्ध में दो अंतर्विरोधी ऑर्डर थे. एक तरफ पर्यावरण मंत्रालय का जून 2011 का आर्डर था जिसमे परियोजना पर काम रोकने का आदेश था और दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट का जनवरी 2012 का ऑर्डर था जिसमे कार्य को निर्बाध चलने देने का आदेश दे दिया था. जस्टिस के.एस.राधाकृष्णन  और दीपक मिश्रा नें इस अंतर विरोध को हल नहीं किया बल्कि इसे उलझाकर ऑर्डर दे दिया कि पर्यावरण मंत्रालय रिपोर्ट देगा कि उसके द्वारा दिए गए ऑर्डर का अनुपालन हो रहा है या नहीं. यानि पर्यावरण मंत्रालय के काम रोको आदेशों को नजरअंदाज करते हुए कार्य को जारी रखने का आदेश दे दिया.

अगस्त 2013 (निर्णय यहाँ देखें) में इस अपील का सुप्रीम कोर्ट नें निर्णय दिया. जस्टिस के.एस.राधाकृष्णन और दीपक मिश्रा की पीठ नें निर्णय दिया कि जन-सुनुवाई का उद्देश्य केवल परियोजना के सम्बन्ध में सुरक्षात्मक उपाय सुझाने का होता है. चूंकि परियोजना निर्माण अब काफी आगे तक हो  चुका था इसलिए इस समय जन-सुनुवाई करने का कोई औचित्य नहीं है. अतः उन्होंने परियोजना को हरी झंडी दे दी. उन्होंने अपने निर्णय में इस बात का उल्लेख भी नहीं किया कि परियोजना का निर्माण जून 2011 के पर्यावरण मंत्रालय के काम रोको आदेश के विरोध में एवं 2004 के अध्यादेश के विरोध में हो रहा था. इस प्रकार एक असंवैधानिक परियोजना को आपने चलने दिया.

अगस्त 2013 में निर्णय देने के पूर्व जून 2013 में उत्तराखंड में आपदा आ चुकी थी. अगस्त 2013 के ऑर्डर में जस्टिस के.एस.राधाकृष्णन एवं दीपक मिश्रा नें यह आदेश भी पारित किया कि उत्तराखंड सरकार द्वारा एक कमिटी बनाकर जांच की जाएगी कि जलविद्युत परियोजना का आपदा में योगदान था या नहीं और तब तक के लिए केंद्र अथवा उत्तराखंड सरकार द्वारा कोई नयी पर्यावरण स्वीकृति जारी नहीं की जाएगी.

मई 2014 में पर्यावरण मंत्रालय नें उपरोक्त रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट के सामने प्रस्तुत किया. रिपोर्ट में कहा गया था कि जलविद्युत परियोजनाओं के कारण आपदा की भीषणता में वृद्धि हुई थी. इसी समय एक और रिपोर्ट वाइल्ड लाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इण्डिया द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गयी. उस रिपोर्ट में कहा गया था कि उत्तराखंड में निर्माणाधीन अथवा प्रस्तावित 24 जलविद्युत  परियोजनाओं का जैव विविधता पर विशेष दुष्प्रभाव पड़ेगा. इस रिपोर्ट के आधार पर जस्टिस के.एस.राधाकृष्णन एवं दीपक मिश्रा नें इन 24 परियोजनाओं पर कार्य को रोक दिया. इसके बाद जस्टिस के.एस.राधाकृष्णन सेवानिवृत्त हो गये.

वर्ष 2015 में मामला पुनः सुप्रीम कोर्ट में लिया गया जिसे जस्टिस दीपक मिश्रा एवं जस्टिस यू.यू.ललित द्वारा सुना गया. उन्होंने जस्टिस के.एस.राधाकृष्णन द्वारा पूर्व में दिए गए आदेश कि “राज्य सरकार द्वारा उत्तराखंड में कोई भी नयी पर्यावरण स्वीकृति नहीं दी जाएगी” का परिवर्तन कर दिया. इन्होने कहा कि यह आदेश अब या तो अलकनंदा भागीरथी बेसिन मात्र पर लगेगा अथवा केवल 24 परियोजनाओं पर लगेगा. अन्य परियोजनाओं को पर्यावरणीय स्वीकृति दी जा सकती है.

अब हम मामले से जुड़े तीन जजों की भूमिका का आंकलन कर सकते हैं. उत्तराखंड हाईकोर्ट के जस्टिस बारीन घोष नें 2004 के अध्यादेश के विरोध में चल रहे निर्माण को स्वीकार किया और नयी पर्यावरण स्वीकृति लेने के लिए आदेश दिया इसलिए उनकी भूमिका सकारात्मक थी.

जस्टिस के.एस.राधाकृष्णन नें श्रीनगर परियोजना को पर्यावरण मंत्रालय के आदेश के एवं 2004 के अध्यादेश के बावजूद परियोजना को चलते रहने का आदेश दिया, यह उनकी नकारात्मक भूमिका थी. साथ में उन्होंने 24 परियोजनाओं को रोका जो उनकी सकारात्मक भूमिका थी. यह माना जा सकता है कि उनकी भूमिका मिली-जुली थी.

जस्टिस दीपक मिश्रा नें जनवरी 2011 में परियोजना का निर्माण निर्बाध चलते रहने का आदेश दिया, फिर 2013 में श्रीनगर परियोजना को चलते रहने का आदेश दिया और अंत में उत्तराखंड के सभी क्षेत्रों पर लागू जस्टिस के.एस.राधाकृष्णन के ऑर्डर को समेटकर 24 परियोजनाओं तक सीमित कर दिया. इस प्रकार उनकी भूमिका गंगा के प्रति नकारात्मक रही है.